गुरुवार, 18 नवंबर 2010

टिकैत उमराव सिंह

वन पर्वत में      गूँज रही है
अमर उमराव की यह वाणी
आजादी     का    दीप     जलाएं
हम दे     कर    अपनी कुर्बानी

हम   मार   जायें,   मिट    जायें
कभी   मिटे    न   क्रांति   वाणी
 अपने     लहू    से   लिख डालें
 आजादी    की     अमर  कहानी

रांची-रामगढ़ मार्ग पर अवस्थित ओरमांझी प्रखंड के निकट एक छोटा-सा गाँव है, खटंगा. चुटूपालू घाटी की पहाड़ियों के समीप बसा यह गाँव कई अर्थों में ऐतिहासिक है. इस गाँव ने मुगलों और अंग्रेजों की क्रूरता झेली और उनके विरुद्ध अनेक क्रांतियों का सूत्रपात किया. इसी गाँव में टिकैत उमराव सिंह का जन्म हुआ था. वे बारह गावों के राजा थे.
        उमराव ने अपने दरबार में कहा,' पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ  क्रांति शुरू  हो  गयी है.  मुझे  उम्मीद है की वर्ष १८५७ अंग्रेजी शासन के अंत को देखेगा. हमें इस क्रांति में शामिल होना है. सामरिक रूप से हमारे  राज्य का क्षेत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है. रामगढ़ और रांची के बीच का हमारा इलाका घने जंगलों और पहाड़ों से भरा हुआ है. हमारे राज्य को पार किए बिना अंग्रेज अफसर या सैनिक रांची से रामगढ़ या रामगढ़ से रांची नहीं जा सकते. हम अपने इलाके में आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेजी सैनिकों को कम सैनिक तथा परम्परागत हथियारों से भी मात दे सकते हैं. वैसे, मैं यह भी बता देना चाहता हूँ कि मेरा सम्पर्क क्रांतिकारियों से स्थापित हो गया है. अत: हमें नए सैनिक तैयार करने का कार्य तेज कर देना होगा.'
           दीवान शेख भीखारी ने दरबार में सूचना दी,' अंग्रेजों की हजारीबाग स्थित सैनिक छावनी में अनेक सैनिकों ने बगावत कर दी है. हमें पूरी उम्मीद है कि इस बगावत को दबाने के लिए जालिम अंग्रेज डोरंडा छावनी से अपने सैनिकों का दस्ता हजारीबाग जरूर भेजेंगे. यह दस्ता हमारे इलाके से गुजरेगा और हम इस दस्ते को तबाह  कर देंगे -वर्तमान में यही योजना  है.'
          ऐतिहासिक दिवस एक अगस्त १८५७ के पूर्व ही डोरंडा छावनी के विद्रोह पर उतारू अंग्रेजी सैनिकों से ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पाण्डेय गणपत  राय, टिकैत उमराव सिंह, दीवान शेख भिखारी आदि ने संबंध साध लिए थे. डोरंडा छावनी के विद्रोही सैनिकों ऩे जमादार माधो सिंह को अपना नेता चुन लिया था.
          लेफ्टिनेंट ग्राहम के आदेश से एक अगस्त को बन्दूक धारी घुड़सवार  सेना  हजारीबाग की ओर चल पड़ी. विद्रोहियों ऩे तय किया था कि वे मार्ग में ही विद्रोह करेंगे क्योंकि कूच का आदेश पाने वाले दोनों कम्पनी में अधिकांश क्रांति करने की इच्छा रखते थे. रांची-हजारीबाग मार्ग पर सैनिकों ने अचानक विद्रोह कर दिया. कर्नल डाल्टन के चार हाथियों पर क्रांतिकारियों ने कब्जा कर लिया और क्रांति का बिगुल फूंक दिया. कम्पनी के साथ जितना भी गोला-बारूद था सब पर बाग़ी सैनिक क्रांतिकारियों ने कब्जा कर लिया. दो तोपें भी उनके हाथ लगीं. हजारीबाग से जो अंग्रेजी सैनिक विद्रोह कर रांची की ओर चले थे, वे जब ओरमांझी पहुंचे तो वहाँ  खटंगा के वीर टिकैत उमराव सिंह के सैनिक, दीवान शेख भखारी के नेतृत्व में उनका साथ देने के लिए पहुच गए. दोनों का सम्मिलित जत्था दो अगस्त को डोरंडा छावनी के क्रांतिकारी सैनिकों से जा मिला.
        कर्नल डाल्टन और लेफ्टिनेंट ग्राहम जान बचाकर पिठौरिया होते हुए हजारीबाग भाग गए. पिठौरिया के परगनीत  जगतपाल सिंह अंग्रेजों से मिले हुए थे. अगर उसने अंग्रेजों का साथ न दिया होता तो दोनों ही क्रूर अंग्रेज प्रशासक बंदी बना लिए गए होते. 
        इधर क्रन्तिकारी सैनिकों का जत्था दो अगस्त, १८५७ को रांची पहुंचा और राह में सम्मिलित सेना के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और सेनापति पण्डे गणपत राय भी सैकड़ों सैनिकों के साथ हो लिए. इस सम्मिलित जत्थे ने रांची को आजाद करा लिया.
         सारे प्रमुख लोगों ने गुप्त मंत्रणा की. पाण्डेय  गणपत राय  ने प्रस्ताव रखा,' हमें  रांची की आजादी की रक्षा करनी होंगी. हम यहीं से अपनी रणनीति
तय  कर अंग्रेजों को पुन: रांची आने से रोकेंगे और अन्य क्षेत्रों की आजादी के लिए संघर्ष करेंगे. लेकिन, हमें भय है कि कर्नल डाल्टन हजारीबाग से अतिरिक्त सैन्य बल लेकर हजारीबाग-रामगढ़-ओरमांझी मार्ग से रांची पर पुन: हमला कर हमारे उद्देश्य को पराजित कर सकता है.'
          उमराव टिकैत ने समस्या का समाधान पेश किया,' हम रामगढ़ से आगे यानी चुटूपालू से लेकर चारू घाटी तक फैले घाटी मार्ग को ध्वस्त कर देंगे. रास्ते में हमारे सैनिक छिप कर पहरा  देंगे और जरूरत पड़ने पर अचानक हमला कर अंग्रेजी सैनिको को समाप्त कर देंगे . मार्ग ध्वस्त करने की जिम्मेदारी मेरे दीवान, शेख भिखारी सम्हालेंगे.  मेरे छोटे भाई घासी सिंह, लाल लोकनाथ सिंह आदि उन्हें इस कार्य में सहयोग देंगे.'
               सात मील लम्बे मार्ग को ध्व्स्त करना आसान कार्य नहीं था, लेकिन शेख भिखारी और उनके सहयोगियों ने यह कार्य कुछ ही दिनों में पूरा कर दिया।
             राजा रामगढ भी अंग्रेजों के पक्षधर थे। उन्होंने घाटी मार्ग के ध्वस्त किए जाने की सूचना गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग को भिजवा दी। कैनिंग के आदेश से कमिश्नर डाल्टन ने एक नया  षड्यंत्र रचा- 'मैं लालच और धमकी के सहारे टिकैत उमराव सिंह को अंग्रेजों का पक्षधर बना लूंगा।'
             टिकैत उमराव सिंह ने अपने समर्थकों की सभा बुलाई  और कहा- 'कमिश्नर  डालटन ने मुझे अपने पक्ष मे करने के लिए मेरे पास प्रस्ताव भेजा है की  वह मेरे शासित क्षेत्र में कुछ और क्षेत्र जोड़ देंगे. उसने मुझे एक बड़ी राशि  भी देने का प्रस्ताव भेजा है. मैंने, आपसे बिना विचार-विमर्श किए, अंग्रेजों के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है. मैं सोचता हूँ कि मातृभूमि   की आजादी के लिए जब हमने कदम बढ़ाया है, तो परिणाम की चिंता किए बिना हमें अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष करना चाहिए.'
        सभा में उपस्थित सभी लोगों ने एक स्वर में अपने राजा के निर्णय का स्वागत किया. दीवान शेख भिखारी ने कहा,' हमें यह  पता है कि अंग्रेजों के पास आधुनिक हथियारों से लैस बड़ी फ़ौज है, लेकिन आजादी के लिए हमें अपनी लड़ाई हर कीमत पर जारी रखनी ही होंगी. हम अपने मकसद में भले मात खा जाएं, लेकिन हम आजादी की प्यास तो हर हिन्दुस्तानी में जगा ही देंगे. हम अंतिम सांस तक लड़ेंगे.'
         अंग्रेजों पर एक बड़ा हमला करने के उद्देश्य से झारखण्ड के क्रांतिकारियों के संयुक्त राजा विश्वनाथ शाहदेव तथा सेनापति पाण्डेय गणपत राय अपनी सेना के साथ रोहतासगढ़ की ओर बढ़ चले. दूसरी ओर, भोजपुर से वीर कुंवर सिंह  की सेना हमला करती हुई रोहतासगढ़ की ओर बढ़ रही थी. लेकिन, झारखण्ड की क्रांतिकारी सेना जब चतरा पहुंची तो वहाँ पहले से घात लगाए बैठी अंग्रेजी सेना ने उन पर अचानक हमला बोल दिया. क्रांतिकारी सैंनिक इस हमले के लिए तैयार नहीं थे. बड़ी संख्या में क्रांतिकारी सैनिक मुठभेड़ में मारे गए. दो प्रमुख क्रांतिनायक जयमंगल पाण्डेय तथा अली खान को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर सार्जनिक रूप से फाँसी दे दी. 
         इस घटना  के बाद अंग्रेजों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी. अपने समर्थक जमींदारों और खरीदे हुए लोगों के सहयोग से २० सितम्बर १८५७ को अंग्रेजी सेना रामगढ़ घाटी में पूरे लावलस्कर  के साथ पहुंची. वहाँ से वह  कूच करती हुई डोरंडा तक पहुंच गयी. २३ सितम्बर को कमिश्नर डाल्टन  ने रांची पहुंचकर नागरिकों को एहसास करा दिया की उनकी एक माह से भी कम पुरानी आजादी समाप्त हो गयी है. उसने रांची पहुँचते  ही क्रान्तिनायकों   की एक सूची  जारी की और उनका अता-पता बताने वालों को पुरस्कार देने की भी घोषणा की. डाल्टन के आदेश से सैकड़ों लोगों को पुरस्कार दिया गया. अनेक गावों में पुलिस तथा सेना ने बड़ी क्रूरता के साथ लोगों को मारा-पीटा तथा उन्हें आतंकित कर दिया. परिणामस्वरूप सबसे पहले टिकैत उमराव सिंह के भाई टिकैत घासी सिंह को अंग्रेज  गिरफ्तार करने में सफल रहे. लोहरदगा जेल में उनकी संदिग्ध अवस्था में मृत्यु हो गयी. कुछ दिनों के बाद टिकैत उमराव सिंह और उनके दीवान शेख भिखारी भी अंग्रेजों की गिरफ्त में आ गए. इनकी गिरफ्तारी की सूचना गाँव-गाँव में फेल गयी लोग उत्तेजित हो उठे. अंग्रेजी सैनिकों ने दोनों क्रांतिवीरों के समर्थकों पर लाठियां  बरसाईं. गोलियां  दागीं.  अनेक लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हो गए. दोनों क्रांतिवीरों को अंग्रेजों ने बिना मुकदमा चलाए ८ जनवरी, १८५८ को चुटुपालू घाटी में एक वट वृक्ष की डाली से लटका कर फाँसी दे दी. उनके शवों को वृक्ष से उतारने की भी इजाजत अंग्रेजों ने नहीं दी. इनके शवों का भक्षण पशु-पक्षी कर गए. बाद में अंग्रेजों ने टिकैत उमराव सिंह के विश्वस्त साथी  विजय राज सिहं, रामलाल सिहं, चामा सिंह और बृजभूषण सिहं को भी फाँसी   की सजा दी. लेकिन, इनकी कुर्बानियों ने भारतवासियों के हृदय में आजादी के  दीप तो जला ही दिए.      

            























     

          
               
         
        

सोमवार, 15 नवंबर 2010

पाण्डेय गणपत राय

विकट स्थितियां जब जब घेरें
धैर्य       ही     देगा       समाधान
आजादी         संकल्प      हमारा
मां की बेदी पर अर्पित    प्राण  


गणपत    बोले    तुम   जगे रहो
तुम    सजग    प्रहरी   बने    रहो


हर      दुश्मन     तुमसे     हारेगा
अगर    तुम्हारा   ज्ञान प्रखर हो
हर   मंजिल   तुम फतह करोगे
अगर  अपना विज्ञान  प्रखर हो


पर   हित में जीवन वरण करो
अपनी   धरती   को   नमन करो

         सन १८५७......सिपाही क्रांति ने झारखण्ड क्षेत्र में पूरी तरह से जनक्रांति  का रूप ले लिया था. इस क्रांति की लपटें झारखण्ड क्षेत्र की सुरम्य वादियों में फैल चुकी थीं ...... भोजपुर के क्रांतिवीर कुंवर सिंह ने वन्यांचल के शेरों को जगाने और उन्हें क्रांति से जोड़ने के लिए एक पत्र हजारीबाग में रह रहे अपने संबंधी लाला जगतपाल  जी को भेजा था....पत्र का एक-एक शब्द क्रांति की अग्नि से दहक रहा था.....झारखण्ड में  स्थित अंग्रेजों की सैनिक-छावनियों में उनका पत्र पढ़  कर सैनिकों ने बगावत की एक योजना रातों-रात तैयार कर ली थी.
           वीर कुंवर सिंह के पत्र को लेकर सतरंजी  के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और छोटानागपुर के राजा के दीवान पाण्डेय गनपत राय के बीच विचार-विमर्श चल रहा था. "ठाकुरों  के सामने एक अच्छा अवसर है, क्रूर, धोखेबाज  अंग्रेज शासन को ध्वस्त कर एक स्वदेशी शासन की स्थापना करने का...आपकी क्या राय है गणपत जी," ठाकुर विश्वथाथ शाहदेव ने प्रश्न रखा.  
           " मैंने तो अपनी भूमिका भी निश्चित कर ली है.....मैंने बाग़ी सैनिकों के साथ अच्छा  सम्पर्क बना रखा है......हम पूरी शक्ति के साथ क्रांति में भागीदारी करेंगे....आजादी या मौत यही मेरे जीवन का उद्देश्य है.." पाण्डेय गणपत राय अपनी बात को रखते हुए पूरे जोश से भरे हुए थे....उनकी मुट्ठियाँ कस गयीं थीं.


          हथियारों के सम्बन्ध में ठाकुर चिंतित थे . गणपत राय ने उन्हें बताया, "आपकी चिंता को मैं समझता हूँ...मैंने इस सम्बन्ध में भी कार्य प्रारम्भ कर दिया है...कुछ हथियार तो बाग़ी सैनिक छावनी से ले कर ही बगावत की राह पकडेंगे. कुछ हथियार हम थाना और छावनी पर भी अचानक हमला कर प्राप्त कर लेंगे. मैंने कुछ  कुशल कारीगरों को  देसी  बंदूक और गोलियां बनाने पर लगा दिया है...हमने कुछ सैनिकों को भी प्रशिक्षण  दे कर तैयार  किया है....एक अगस्त को डोरंडा छावनी में जब सैनिक अचानक विद्रोह  करेंगे तो बाहर से हमारे जवान उनकी मदद में अपनी पूरी ताकत लगा देंगे."


          इस विचार-विमर्श के बाद क्रांति के चाणक्य पाण्डेय गणपत राय  ने झारखण्ड के क्षेत्र उन सभी जमींदारों, सरदारों और समुदायों से  सम्पर्क करना शुरू कर दिया था, जो अंग्रेजी शासन का अंत  देखना चाहते थे. 


          एक अगस्त १८५७ ....डोरंडा छावनी में तय समय पर सैनिकों ने विद्रोह कर दिया.. ठाकुर और गणपत राय के जवान विद्रोहियों के साथ आग उगल रहे थे...छावनी में रह रहे अंग्रेज अफसर किसी तरह जान बचा कर भागे.....


         डोरंडा छावनी में सफल विद्रोह के बाद विद्रोहियों ने गुप्त बैठक की,जिसमें डोरंडा बटालियन के जयमंगलपाण्डेय, रामगढ़ बटालियन के जमादार माधो सिंह, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पाण्डेय गणपत  राय, पलामू के भोक्ता  सरदार नीलाम्बर और पीताम्बर, पोराहाट के राजा अर्जुन सिंह आदि क्रांतिवीरों ने क्रांति के संचालन पर गंभीर वार्ता की. गणपत राय ने अपनी बात रखी," हमें अपना संघर्ष  और हमला तेज करना होगा....हमें ऎसी स्थति पैदा  करनी होंगी  कि छल प्रपंच में माहिर अंग्रेज पुन: रांची  में कदम न रख पाएं." 
         राजा अर्जुन सिंह  ने गणपत राय को ललकारा," क्यों गणपत जी, आप चाणक्य की भूमिका निभाएँगे न?"
         गणपत राय जी ने कहा," मैं तो कुर्बानी देने के लिए आगे आया हूँ!"
          विद्रोही सिपाही  जयमंगल पाण्डेय ने तभी प्रस्ताव रखा, "कोई भी फ़ौजी कार्यवाही बिना राजा और सेनापति के निश्चत नहीं हो सकती है... मेरा प्रस्ताव है कि इस परिस्थिति में हमारी क्रांति को सुचारू रूप से चलाने के लिए राजा का पद तलवार के धनी ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव उठाएं और तलवार तथा कलम के धनी पाण्डेय गणपत राय जी संयुक्त सेना का सेनापति बनने की जिम्मेदारी सम्हाल लें."
         क्रांतिवीर जयमंगल सिंह का प्रस्ताव सभी क्रांतिकारियों  ने स्वीकार कर लिया. फिर बैठक में क्रांति की रूपरेखा, रणनीति, संपर्क और साझा आक्रमण करने आदि के विषय  में गंभीर चर्चा हुई  और अनेक निर्णय लिए गए. 
          ५ अगस्त, १८५७......पुरुलिया में अनेक सैनिकों ने अपनी नियोक्ता अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. उस विद्रोह में भी गणपत राय  के सैनिक शामिल थे. वहां संयुक्त विद्रोह के कारण ऎसी स्थिति पैदा हो गई कि डिप्टी कमिश्नर ओक्स को कलकत्ता भागना पड़ गया.
        सम्पूर्ण झारखण्ड क्षेत्र में विद्रोहियों ने गजब की क्रांति खड़ी कर दी थी...सरकारी खजाने लूटे जा रहे थे....पुलिस थानों पर हमला बोला जा रहा था.....पलामू में नीलाम्बर और पीताम्बर सरकारी ठिकानों पर तीरों की बरसात कर रहे थे......घात लगा कर वे अंग्रेजों और अंग्रेज समर्थकों का अंत कर रहे थे.....चेरो, खरवार और भोक्ताओं की सम्मिलित शक्ति ने क्रांतिकारियों में अपूर्व जोश का संचार कर दिया था....खरवार नेता परमानंद, भोक्ता नेता भोज भारत, नलकांत मांझी, भवानी बक्स राय, टिकैत उमराव सिंह, शेख भिखारी अपने तीर और तलवारों के साथ-साथ सैन्य संगठन का लगातार विस्तार करते चले जा रहे थे....
          क्रांति के क्रम में रांची करीब एक माह तक स्वाधीन रहा......लेकिन अंग्रेज चुप नहीं बैठे थे....वे भी विद्रोह को कुचलने के लिए, अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप षड्यंत्र  रच रहे थे...विभीषणों  की तलाश में धन लुटा रहे थे.....घर-भेदिया  खरीद रहे थे....पद  बाँट रहे थे..जमींदारियां बाँट रहे थे...उन्हें परिणाम भी मिला...१३ सितम्बर, १९५७ को अंग्रेजों ने छल-बल के साथ दिल्ली पर विजय हासिल कर ली...क्रांति का पतन प्रारम्भ हो गया...लेकिन झारखण्ड क्षेत्र में तब भी क्रांति की ज्वाला भड़क रही थी...चतरा में आमने-सामने की लड़ाई हुई, १५० क्रांतिकारी शहीद हो गए...अंग्रेजों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी...उनके पास हथियारों की कमी नहीं थी..इस संघर्ष के नायक जयमंगल पाण्डेय तथा नादिर अली को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया. उन्हें सार्वजनिक रूप से अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया. अंग्रेजों ने पकड़े गए ७० विद्रोहियों को भी बड़ी बेरहमी से कत्ल करवा दिया और उनके शवों को अज्ञात जगह पर दफन करवा दिया.
         मार्च १८५८.....छल-प्रपंच में माहिर   मेजर नेशन ने महेश  नारायण शाही की मदद से ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और पाण्डेय गणपत राय को गिरफ्तार कर, रांची में सार्वजानिक रूप ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को १६ अप्रैल १८५८ को और गणपत राय को २१ अप्रैल १८५८ को  से फाँसी दे दी गई.....जिस दिन गणपत राय  को फाँसी दी गयी, उस दिन उनके अनेक समर्थकों को कत्ल करवा कर, उनके शवों को अंग्रेजों ने स्थानीय जिला स्कूल के निकट के एक कुएँ में डलवा दिया....
           हालाँकि क्रांति को छल-बल से अंग्रेजों ने दबा दिया, लेकिन पाण्डेय गणपत राय की वाणी बाद में प्रतिफलित हुई," वह दिन आएगा जब पूरा देश एक झंडा, एक नेतृत्व और एक मार्ग पर चल  कर आजादी के लिए लड़ेगा और तब अंग्रेजों को भारत छोड़ना होगा."