शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

साथी अपना यह झारखण्ड

है भारत में स्वर्ग सामान
साथी अपना यह झारखण्ड
भारत का यह हरित खंड
सोने-सा झारखण्ड
हीरे-सा झारखण्ड
यहाँ कल-कल करती तजना
कोयल का बहता पानी
है सन्देश सुनाता साथी
अपनी एकता हो चट्टानी
तभी बनेगी सुखद   कहानी
है भारत में स्वर्ग समान
यंहां बिरसा ने दी बलिदानी
सिद्धो-कान्हू की कुर्बानी
बुधु भगत की अमर कहानी
अपने पुरखे जीवन दानी
हमको सबकी याद जुबानी

है भारत में स्वर्ग समान
साथी अपना यह झारखण्ड

विश्वनाथ,शेख भिखारी
गणपत ने भी दी बलिदानी
झूल गए कितने फंदे  पर
गोली खाई जुल्म सहे
याद हमें यह अमिट कहानी

है भारत में स्वर्ग समान
साथी अपना यह झारखण्ड
-दिलीप तेतरवे
                                               प्रवेश
झारखण्ड को इतिहासकारों ने कभी अपने गहन अध्ययन का विषय नहीं बनाया. परिणाम  स्वरूप , इतिहास के अनेक महत्वपूर्ण अध्याय झारखण्ड की सुरम्य वादियों में अधखुले पड़े हैं. प्राग ऐतिहासिक काल से इस भूखंड ने इतिहास रचा है. यहां के वासियों ने भारतवर्ष  के हर ऐतिहासिक काल  में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है. इनके हुंकार के सामने मुगलों की  तलवारों की धार अनेक बार कुंद हुई तो, अंग्रेजों की बन्दूंकें भी थर्राईं. ऋग वेद काल में यह भूभाग कीकट कहलाता था. यहाँ दामोदर नद और भैरवी नदी का संगम कभी वैदिक ऋचाओं के पाठ से गूंजा करता  था. कभी यहाँ का आकाश यज्ञ के पावन धुंए से सुगन्धित रहा करता था. हजारीबाग में प्राप्त गुफा चित्र, अनेकानेक पुरातात्विक साक्ष्य, प्राचीन मंदिर, लोक गीतों में पिरोई घटनाएं आदि आज भी इतिहासकारों को शोध के लिए आमंत्रित करती हैं.
-दिलीप तेतरवे

शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव
                      कहानी              
गूंजी  विश्वनाथ     की       वाणी
'तोड़    गुलामी    की       जंजीरें
देश का झंडा  तुम लहराना
देकर      प्राणों     की     कुर्बानी

अपनी धरती    अपनी माता
दोनों का है      कर्ज चुकाना
जीवन  अपना न्योछावर कर 
 दोनों    का है     मान  बढ़ना

           बड़कागढ़.....सन १८८५.....अपनी राजधानी सतरंजी में ठाकुर अपने दरबार में बोल रहे थे,'आप जानते हैं कि  मैं ठाकुर अनिनाथ  शाहदेव के वंश की सातवीं पीढी का  उत्तराधिकारी हूँ. जब हमारे पूज्य पूर्वज अनिनाथ शाहदेव ने जगन्नाथपुर  मंदिर का निर्माण कराया था, तो कहा था ,'श्री जगन्नाथ हमारे प्रजा के सम्मान की रक्षा करेंगे, लेकिन, इसके लिए हमें अपनी शक्ति का भी लगातार  संवर्धन करते रहना होगा......' आज हमारे ऊपर गुलामी का संकट है. सात समुद्र पार से आये अंग्रेज हमें गुलाम बनाने की प्रक्रिया में हैं. वे हमारे राज पर अपना कानून लादना चाहते हैं. हम पर मनमाना टैक्स लगाना  चाहते हैं. हमें हमारे धर्म से भी च्युत करना चाहते हैं. मैं आज यह घोषणा कर रहा हूँ कि मैं आज से अंग्रेजों का कानून नहीं मानूँगा. उन्हें  टैक्स देने का प्रश्न ही नहीं उठता. हम सदा स्वतंत्र थे और स्वतंत्र रहेंगे.'

         ठाकुर विस्वनाथ शाहदेव के सभी दरबारियों ने शपथ ली कि वे अपनी स्वतन्त्रता बरकरार रखने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देंगें. इस घटना की सूचना जब अंग्रेज प्रशासकों को मिली तो वे आक्रोश से भर उठे. अंग्रेजों ने डोरंडा छावनी से सेना की एक टुकड़ी सतरंजी पर हमला करने के लिए भेजा. हटिया के समीप ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और उनके सैनिकों ने अंग्रेजी सैनिकों को घेर लिया. अंग्रेजी सेना ने इस तरह की घेराबंदीके बारे में कभी सोचा नहीं था. उन पर तीरों की वर्षा  होने लगी. ढेलफांस  से पत्थर बरसाए जाने लगे. पहाड़ी इलाके में अंग्रेजी सैनिक अपने आधुनिक हथियारों का प्रयोग नहीं कर पा रहे थे. अधिकांश अग्रेजी सैनिक मारे गए. बचे हुए सैनिक किसी तरह अपनी जान बचा कर भागे. 

          ठाकुर ने अपने दरबार में कहा,' अंग्रेजी सैनिकों को हमने अवश्य मात दी है लेकिन, अब हमें और सचेत रहने की जरूरत है. वे फिर हमला करेंगे और अपनी पूरी ताकत से हमला करेंगे. अंग्रेज के पिट्ठू जमींदारों, उनके मुखबिरों और यहाँ तक कि पादरियों के प्रति भी हमें सजग रहना होगा. घर का दुश्मन ज्ञात दुश्मनों  से ज्यादा खतरनाक होता है. '

          सन १८५७.......झारखण्ड क्षेत्र में भी सिपाही क्रांति की धमक सुनाई देने लगी थी.....इस क्षेत्र के अनेक जमींदार और प्रबुद्धजनों
की नजर इस राष्ट्रव्यापी  क्रांति पर लगी हुई थी. ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव  भी ऐसे ही अवसर की तलाश में थे. उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ सम्बन्ध बना लिए थे. ठाकुर ने अपने दरबार में भौरों  के पाण्डेय गणपत राय को विशेष रूप से आमंत्रित किया था. ठाकुर ने अपनी बात रखी,' बहादुर साथियो, पूरे देश में अंग्रेजों के जुल्मी शासन के खिलाफ विद्रोह अपने चरम पर है. आप जानते हैं कि अंग्रेजों की   हजारीबाग एवं डोरंडा छावनी के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया है. इस विद्रोह में आपने भी उनका साथ दिया. हमारे सम्बन्ध वीर कुंवर सिंह और महारानी लक्ष्मी बाई से भी स्थापित हो गए हैं.... झारखण्ड क्षेत्र के क्रान्तिकारियों   ने मुझे राजा के रूप में स्वीकार किया है और पाण्डेय गणपत राय को संयुक्त सेना का सेनापति बनाया है और अब मेरी   और  बड़कागढ़
के आप सब निवासियों की जिम्मेदारी पहले से अधिक हो गयी है..... गणपत जी हथियारों की व्यवस्था  में लगे हैं. वह कूटनीति भी तय कर रहे हैं.' 

          गणपत राय ने बताया,' हजारीबाग की अंग्रेजी  छावनी के सैनिक  रांची की ओर आ रहे हैं.... एक अगस्त को कर्नल डाल्टन को भी मात दे दी है. डाल्टन के चार हाथी, अनेक बंदूकें, अन्य अस्त्र-शास्त्र, दो तोप तथा उसके गोले अब हम  क्रांतिकारियों के पास हैं. हमारे क्रांतिकारियों ने ग्राहम की संपत्ति  भी जप्त कर ली है..... सन १७७२ से कायम अग्रेजी शासन का अंत हो गया है, लेकिन लोहरदगा के जिलाधीश डेविस, न्यायाधीश ओक, पलामू के एसडीओ बर्च एवं अन्य अधिकारी हजारीबाग में सक्रिय  हैं. हमने तो युद्ध का नियम पालन किया है. हमने अस्पतालों पर हमला नहीं किया..... जीईएल चर्च के लोग  युद्ध में अंग्रेजों का साथ दे रहे हैं. इस लिए उस चर्च पर हमने चार गोले दागे हैं ताकि चर्च की ओट में अग्रेजों के पिट्ठू हमारे ऊपर   प्रत्याक्रमण न करें, लेकिन अंग्रेज तो अब छल-बल से काम लेगें..... ये धूर्त हमारे बीच घर भेदिया खरीद सकते हैं.... हमें इस स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए अपने हर गाँव को गढ़ बना देना होगा. हर जंगल में हमें अपनी सेना तैनात करनी होगी तभी हमारी विजय कालजयी होगी. वरना अंग्रेज हम पर फिर से  हावी हो जायेंगे..... हमें सूचना मिली है कि छोटानागपुर के महाराजा और जमींदार क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए षड्यंत्र में अंग्रेजों के साथ हैं.'

          क्रांति  को कुचलने  के लिए अंग्रेज तेजी से कार्यवाही कर रहे थे. अक्टूबर, १८५७ में अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों पर चतरा में जोरदार हमला बोल दिया. मेजर इंगलिश सैनिकों का नेतृत्व कर रहा था. अचानक हमले के कारण क्रांतिकारी बिखर गए. इस हमले के पहले अंग्रेजों ने कुछ स्थानीय लोगों को धन-बल से खरीद लिया था. क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सैनिकों का फिर भी डट कर मुकाबला किया, लेकिन अंग्रेजी सैनिकों के आधुनिक हथियार के आगे वे टिक नहीं पाए. तीन अक्टूबर को क्रांतिकारी जयमंगल सिंह और नादिर अली को अंग्रेजों ने बंदी बना लिया  और चार अक्टूबर  को ही छोटे  से न्यायिक नाटक के बाद, सरे आम एक वृक्ष से लटका कर दोनों क्रांतिकारियों को मार डाला.

          ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पाण्डेय गणपत राय और जमादार माधो सिंह थोड़े से क्रांतिकारियोंके साथ अंग्रेज सैनिकों की घेराबंदी तोड़ कर किसी तरह निकल पाए. घने जंगल में रात के समय तीनों क्रांति नायकों ने विचार- विमर्श किया. 
         ठाकुर ने कहा,' सोचा क्या था और क्या हो गया. हम पहले हर मोर्चे पर सफल हो रहे थे. आज हम हर मोर्चे पर मात खाते जा रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर भी अंग्रेजों ने क्रांति को लगभग कुचल दिया है. हम क्या करें?'
          गणपत राय ने कहा,' हम कभी पीछे नहीं हटेंगे. हम अंतिम दम तक लडेंगे. हम कुर्बानी देने का  एक मिसाल कायम करेंगे और तभी एक दिन हमारा पूरा देश जागेगा....भारत का फिर से उदय होगा.'
         माधो सिंह ने कहा,' ठाकुर जी हमने जिस दिन अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह शुरू किया था, उसी दिन मान लिया था कि हार का मतलब है मृत्यु.' 
           ठाकुर ने कहा,' ठीक है, हम क्रांतिकारियों को पुन: जुटायेंगे.
बहुरन सिंह भी मुझे सहयोग देगा. मैं और गणपत जी लोहरदगा की ओर बढ़ते हैं. माधो जी आप रामगढ़ और पलामू के साथियों से मिल लीजिए.' 
          ठाकुर और गणपत  राय ने लोहरदगा क्षेत्र में सैकड़ों युवकों को क्रांति के साथ जोड़ लिया. बहुरन सिंह को नयी टुकड़ी के साथ अंग्रेजी ठिकानों पर लगातार हमला करने की जिम्मेदारी दी गयी. एक बार फिर से थाने लूटे जाने लगे.... बहुरन सिंह ने लोहरदगा में प्रिंसिपल असिस्टेंट के कैम्प पर हमला कर  दिया . लेकिन यहाँ बहुरन  सिंह से  एक चूक हो गई. प्रिंसिपल असिस्टेंट के कैम्प में चार सौ से अधिक सशस्त्र सैनिक थे, जिनके सामने बहुरन सिंह के साथ के दो सौ क्रांतिकारी टिक नहीं पाए.  बहुरन सिंह को पीछे हटना पड़ा. 
          इस घटना के बाद अंग्रेजों ने क्रूरता का ताण्डव प्रारम्भ कर दिया. क्रांति नायकों का अता-पता बतानेवालों के लिए पुरस्कार  की घोषणा की गयी. भय का माहौल बनाने के लिए अंग्रेजों ने दो सौ क्रांतिकारियों को रांची में मार डाला. कैप्टन ओक्स और कैप्टन नेशन ने लोहरदगा के समीप बहुरन सिंह को गिरफ्तार कर लिया. पांच  जनवरी, १८५८ को बहुरन सिंह को फाँसी दे दी.
          अंग्रेजों ने ठाकुर की गिरफ्तारी के लिए जाल बिछा रखा था. कूढागढ़ के विश्वनाथ दूबे अंग्रेजों के लिए काम कर रहे थे. उन्हीं  की सूचना पर  मार्च, १८५८ को अंग्रेज ठाकुर विश्वनाथ को गिरफ्तार करने में सफल हो गए. १६ अप्रैल, १८५८  को ठाकुर को अंग्रेजों ने रांची में एक कदम्ब के पेड़ से लटका कर सार्वजनिक रूप से फाँसी दे दी.... ठाकुर विश्वनाथ ने देश की आजादी के लिए अपने जीवन की कुर्बानी दे दी. चारों  ओर उदासी का आलम पसर गया.           
          

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